जिंदगी की जिम्मेदारी Poetry Prakash Choudhary
जिंदगी जीने के लिए जरूरी है सांसों का आना-जाना, इन सांसों को निरंतर रखने के लिए दिन में दो वक्त की रोटी अनिवार्य हैं।
इन रोटियों को सेंकने के लिए जरूरी है चूल्हे की आग।
मेरे सामने वाले फ्लैट में देर रात तक लाइटें जल रही है, वहां हो रही हलचल बताती है कि कोई अपने रसोई के चूल्हे की आग को जलाए रखने के लिए नौकरी की तैयारी कर रहा है।
ये नौकरी की चाह रखने वाले नौजवान अगर हाथ में मोबाइल उठाए तो फटाक से रिक्रूटमेंट वेबसाइट्स पर जाकर नए नोटिफिकेशन के लिए नजर ताकते रहते है, विभिन्न सोशल मीडिया के एल्गोरिदम भी अब इन्हें Interests और Activity के आधार पर दो-चार मोटिवेशनल लाईनें फ़ीड में दिखाकर फिर से नौकरी की तलाश की याद दिला देते है।
ये नौजवान भविष्य की चिंता करके नौकरी के लिए ऐसा बेशक नहीं कर रहे हैं बल्कि इन्हें अभी अभी राशन, किराया, बिजली, पानी और मकान जैसे शब्दों का बोध हुआ हैं।
इन्हें चिंता हैं दादी मां के अगले महीने दवाई खत्म हो रही है, पिताजी की भी अब उम्र ढलती जा रही हैं इन्हें आराम की जरूरत महसूस होती हैं, घर में बड़ी बहन की शादी भी कुछ महिनों बाद तय की गई हैं, मां भी कब तक हर शाम अपने बेटे और बेटी के लिए भगवान से नौकरी की दुआ मांगती रहेगी।
और इन्हीं शब्दों की पूर्ति करने की कामना को ही ये समर्थ किरदार और परिवार जिंदगी मानते हैं और इसे ही आम चलन में जिंदगी कहते हैं।
यूं तो ये नौकरी के बिल्ले, जिन्हें एक बार गले में डाल दिया जाए तो हमेशा हमेशा के लिए सीने पर पिघल कर छिप जाते हैं।