गांव के लेखक प्रकाश चौधरी ( Prakash Choudhary Pareu ) द्वारा लिखी गई कहानी
मैं रेगिस्तान की तपती धूप से , गर्मियों में चलने वाली तेज हवा से वाकिफ हूं , मैं जानता हूं कि मई-जून में दिन में चलने वाली गर्म आंधी एवं रात में डरा देने वाली आंधियां शायद भारत में और कहीं नहीं चलती।
रेगिस्तान में ग्रीष्म काल में मकानों में बैठ या सो नहीं सकते , क्योंकि वहां पर आज तक सरकार द्वारा बिजली की सुविधा प्रदान नहीं की गई है , इसलिए हमें गर्मी के दिनों में हमारे घर के आगे खड़े उस पुराने नियम की छांव में पूरे परिवार द्वारा बैठकर गपशप लगाना मानो एक आदत सी बन गई , लेकिन आंधियों की भी एक आदत थी कि वह रात को इतनी धूल भरी चलती थी कि सुबह आप बिस्तरों पर रेत देखोगे तो दुबारा उस बिस्तर पर सोने का मन नहीं करेगा।
न जाने हर रोज कितने जीव जंतु पानी की तलाश में दर-दर भटकते हुए अपनी जिंदगी की जंग हार जाते हैं , मैं कई बार बचपन में स्कूल से आते वक्त देखता था कि किस प्रकार सड़क पर हिरण पानी की तलाश में दौड़ा करते थे , क्योंकि गर्मी ऋतु में कुछ दूर सड़क पर पानी जैसा कुछ आभास होता है , मैं यह भी देखता था कि उस 100- 200 साल पुरानी खेजड़ी के नीचे न जाने कितने जीव जंतु आपस में सभी दुश्मनी भुलाकर एक ही छाया में बैठा करते हैं , अजीब तो मुझे भी लगता था क्योंकि मैं उन तपती धूप के दिनों के अलावा कभी भी मोर एवं कुत्ते दोनों को एक ही खेजड़ी की छाव बैठा नहीं देख पाता था।
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ये गांव की आंधियां भी बड़ी अजीब होती थी , कि बच्चों से दुकान जाते वक्त उस पांच रूपए का नोट उड़ा ले जाती थी , काफी दौड़ाती , फिर वह ₹5 का नोट कहीं झाड़ी में जाकर फस जाता निकालने के लिए घंटों मशक्कत करनी पड़ती ।